मंगलवार, 18 मई 2010

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा,
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे,
कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम,
तुम हुये विनीत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको,
कायर समझा उतना ही |

अत्याचार सहन करने का,
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज,
कोमल होकर खोता है |

क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल है,
उसका क्या जो दंतहीन,
विषरहित विनीत सरल है |

तीन दिवस तक पंथ मांगते,
रघुपति सिंधु किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द,
अनुनय के प्यारे प्यारे |

उत्तर में जब एक नाद भी,
उठा नही सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की,
आग राम के शर से |

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि,
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज दासता गृहण की,
बंधा मूढ़ बन्धन में |

सच पूछो तो शर में ही,
बसती है दीप्ति विनय की,
संधिवचन सम्पूज्य उसीका,
जिसमे शक्ति विजय की |

सहनशीलता, क्षमा, दया को,
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके,
पीछे जब जगमग है |

मंगलवार, 9 मार्च 2010

आशा का दीपक



वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है

चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

हम पंछी उन्मुक्त गगन के


हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

शंखनाद

मृत्युंजय  इस  घट में  अपना,
कालकूट भर दे तू आज|
ओ मंगलमय पूर्ण सदाशिव,
रौद्र रूप धर ले तू आज||


हम अंधे भी देख साखें कुछ,
धधका दे प्रलय ज्वाला,
जिसमे पड़कर  भस्म शेष हों,
जो है जर्जर निस्सार|


मदमत्तों का मद उतर दे,
दुर्धर तेरा दंड प्रहार|
चिर निद्रित भी जाग उठे हम,
कर दे तू ऐसा हुंकार||


....
ओ कठोर तेरी कठोरता,
कर दे हम को कुलिश कठोर|
विचलित ना कर सके कोई भी,
झंझा की दारुण झकझोर||


....